Monday, October 26, 2009

एक भयानक बदलाव


जिसके देह में फरता था चिल्लड़ बेपनाह
और विचरते थे खुल के जुएँ जहाँ-तहाँ
जिसके कपड़े थे पसीने की पपड़ी से लथपथ
चुने के रंग में कमीज़, और कालिख पुती पैंट
वो कब से रात में जाग-जाग कर टिकिया घसने लगा ?

जो खैनी ग्रसित भूरे दाँतों को ले
मारता था बेफिक्र ठहाका
जिसके मुँह से निकलता था गंध विषैला
वो कब से दो-दो बार दातुन करने लगा ?

अनगिनत कंचुकियों को चूसने वाले चमगादड़
और रण्डियों की रात गमकाने वाले पिशा
तू कब से कलम में दवात भरने लगा ?

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