इन जंगलों और खेतों
के बीचों-बीच भागती, टेढ़ी-मेढ़ी
ये रेलगाड़ी नहीं है- साँप है।
तू लाल लिबास से छिपी हुई
झकझोरों से हिलती, उफनती
औरत नहीं है- आग है।
ये लोग भी नहीं हैं लोग
जो लगे हैं करने तुझे मेरी नज़रों से दूर
ये हैं समाज द्वारा प्रशिक्षित-
नैतिकता में सर्टिफाईड
उचित- अनुचित में डिप्लोमा
हासिल किए बेहुदे सूअर की फौज-
जो दूसरे सूअरों की अनुपस्तिथि में
ख़ुद उस नाली में नहायें
जिसके लिए दूसरों पे किकियायें ।
जो शीघ्र ही कर देंगे अपने मनुज बच्चों
को भी नए ज़माने के समकालीन सूअर।
जो छिपा तो रखेंगे अपने परिवार की सुअरनियों को
पर ताकेंगे नाक फुला के दूसरे सुअरनी के थन को।
और इनके बीच बैठे हम बन चुके हैं
महज एक नैतिकता दर्शाती तस्वीर
जो बनती हैं कितनी हीं
साँप सी रेलगाड़ी के अन्दर
हर रोज़। अनगिनत।
हम दोनों जैसे ही होते हैं
जाने कितने लोग
जो रह जाते हैं मन मसोसकर,
बनकर मात्र बस दो पात्र
इस चिड़चिडे से तस्वीर में-
और फिर उतरकर इस विषैली गाड़ी से
लेते हुए अपना बकवास सा सामान-
भरा हुआ झूठे किताबों से,
चल देते हैं अगली तस्वीर का हिस्सा बनने।
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