Friday, October 30, 2009
आग सेंकते सपने
ये सुदूर सपने-
जिन्हें आँखें देखा करती हैं
ये बस एक सोच है- एक अलसाई सोच
और कुछ भी नहीं
जिसके गठ्ने से तम्मनाओं में बहाव
तो आ जाता है ,
जो ले तो चल पड़ता है इसे
जहाँ-तहाँ , बिना डर के
किसी रेतीले निर्जीव राह से भी,
मचाते उथल-पुथल
काँटों की गोद में - बिना उनको भाव दिए
पर
थम जाता है ये बहाव भी- आगे कुछ और दूर
अपने आप के कम जाने से,
बहुत ही दूर आ जाने से,
रस्ता रोकने वाले तमाम बाँध के कारण भी
और बन के रह जाता हमारा जीवन
इन रंग-बिरंगी सपनों का ही काला ढेर,
कल ही के बेचैन ख्वाबों का स्थायी पड़ाव
जो गली का भगाया झोंका भी उड़ा फेंकता है
एक एकांत धूमिल क्षितिज पे-
जब की देखा जाए तो
ये एह्सास होता है- जिन्दा
सुन्न,
सुस्त,
अधूरा,
दशमलव गर्माहट का,
अपने ही चिता पे बैठा आग सेंकता-
मगर अब भी जिंदा।
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