जान मार देती है एक बन्दी
एक बन्दे का-
सिगरेट पिला-पिला के,
जब उसका तोड़ देती है दिल
और छोड़ देती है सड़क पे
गाड़ी से कुचल जाने
बेपरवाह ।
जब वो दारु में नहा -नहा के
रेंगता है अपनी ही उलटी में
पर फिर भी नही जा पाती आदत
उसको सोचते रहने की,
उस पे आस लगाये रहने की
कुछ तो...
कैसे भी...
ऐसी कितनी मौतें मरके
पैदा हुआ हूँ मैं फिर
अपनी धू-धू जल चुकी राख से
दिल लेकर नया, बिना खरोंच,
बेनिशान।
पर अब आ चुकी है मुझमें
पहचान
ऐसी मकड़ियों की
जो चूस लेती हैं सारा प्यार
और देती हैं उसके बदले
बस- दर्द और सिगरेट
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