Wednesday, September 29, 2010

कछुआ जलाओ रे, बहुत मच्छर है



कैसा है ये कुबड़ा पहाड़
दुबका हुआ चुपचाप ?
और देखो इस सूरज को-
जिसे कान खींच
ले जाया जाता वापस
हर शाम
तारें कर रहे हैं उठक-बैठक
चाँद है बाहर मुर्गा बना
आसमान का छाता है छिदा हुआ
जिससे चू जाती बासी बारिश
बादल हैं बिखरे रुवें
जिस बिस्तर पे अभी शाम को पड़ी छड़ी
ये ओस हैं रात के आँसू
जो रोता कमरे में बंद पड़ा
देखने जो नहीं मिलता
दुनिया की टी वी
भोर को रोज़ पड़ती है डाँट
संवारता नहीं है चादर अपना समय से
दोपहर का है खाना बंद
मोटा गया है सो-सो के


कुछ लोग



विकासक्रम ने बो दिया
हमारा एक वंश वृक्ष
जो चलता आ रहा सदियों से
फैलाता अपनी भुजाएँ
बनता विशालकाय
मानव रजिस्टर के पन्नों से परे
निचोड़ पूरे मनुष्य को
अपने भुजंग चपेट में

मैं भी हूँ इसके एक सिरे का अंश
ला पटकाया यहाँ अपनी इस नोक पे
न जाने किन गहन लम्बे रास्तों से होते
लग गए कितने ज़माने इस धारणा के जन्म में
जिसे आज 'मैं' कह संबोधित करता हूँ

अब पहुँच कर यहाँ, है मेरे कन्धों पर
दायित्व और बिना कोई शक के उम्मीद
अपने इस सिरे को आगे फैलाने का
क्यूंकि ये जो पेड़ है, ये इंसानों की ज़िन्दगी
की गोबर खा फूलता-फलता है, किस्म जो भी हो-
ज़िन्दगी आगे बढ़ रही, तो यह भी आगे बढ़ रहा

मेरे इस नव अंकुरित छोर को आगे बढ़ाने की
अपेक्षा कर रहे इस दानवी वृक्ष के कंकाल,
कंकाल ही- क्यूंकि अब वो पुरातन पूर्वज तो
अपनी हाड़-मांस त्याग सोये पड़े हैं कहीं
बची उनकी आस्तित्व की बस कुछ कहानियाँ
जो चली उनसे दो-तीन सतह नीचे
फिर खो गयी वो भी कहीं
न जान पाने की वजह से
न दोहराए जाने की वजह से

कितना खाली होता है वो सूनापन
जब इस झाड़ीदार समकालीनों के बीच
एक आदमी पड़ जाता है अकेला
न बचा पिछला कोई
न ख्वाहिश अगलों की
केवल वो- बिलकुल अकेला

ढूँढता गर्मी जहाँ मिल जाए
जिससे मिल जाए
प्रेयसी की बाहों में
तवायफ की कराहों में
बचाता है खुद को
अपनी व्यवसाय की चादर ओढ़
इस दाँत कटकटाने वाली ठिठुरन से
लेकर अपनी लतों की गर्मी
और कर दोस्तों के साथ कुछ दूर चहल कदमी
पर अब ये मित्र पहले जैसे कहाँ?
ये भी हैं अब व्यस्त
इस वृक्ष की पालन पोषण में
अपनी उपज की जिम्मेदारियों से
ताकि चले उनकी भी कहानी
कुछ और आगे

और ऐसे ही चलता रहता है कश्म-कश
उस अकेले का खालीपन से
कभी कुछ पुरानी आदतें काम आ जाएँ
तो कभी कोई नया शौक
मतलब ज्यादा नहीं रहता
कि कौन है, कौन नहीं
पर होता है संदेह
कौन-कौन हो सकते थे ?
फिर एक दिन हो जाती
है उसकी कहानी ख़त्म
और साथ ही इसके
कई सदियों से चली आ रही वो एक बहाव भी-
उसकी तस्वीर अब
किसी फ्रेम पे नहीं सजेगी
उसे कैसा संगीत पसंद था
ये चर्चा कभी न होगी

पर बात यहाँ ख़त्म नहीं होती-

एक इंसान के वजूद का माप
उसके परिजनों में बसी
उसकी जमी यादों के गहराई
से नहीं करते
बल्कि उसकी पुष्टि होती है
गैरों के ज़हन में
बार बार दोहराई
उसकी बसर ज़िन्दगी की कल्पना से



Tuesday, September 28, 2010

चला दो गोली



स्केच पेन है हथगोला
पेंटिंग ब्रश है तोप
पाईलौट पेन है मशीन गन
लीड पेन है पिस्तौल
और एक कलम रिवॉल्वर

एक खाली रिवॉल्वर
उतना ही सुन्दर दिखता है
जितना की एक भरी कलम

पर कलम से कागज़ कुरेदने को
केवल एक शौक़ बनाने से बेहतर है
खतरनाक सोच की कारतूस डाल
तमन्चे का घोड़ा दबाना




जिज्ञासा एक बालक की जो गणित में पास न हो सका



एक पहुँचा संत
उठा के पत्थर
अगर फोड़ दे मेरा सर
तो इसे क्या समझूँ ?

मेरी बात का विषैलापन
या उसके साधना की विफलता ?

क्यूँ हो जाती है फाँसी माफ़
उस जघन्य अपराधी की
जब वो कर लेता है ख़ुदकुशी ?


मेरे चिट्ठे को लौटा देती
गुस्से से, बिन दिए जवाब
पर आकर बैठती मेरे ही बगल
दोनों सेक्शन की संयुक्त क्लास में

ये हमारी समीपता है या समापन ?




मेढक की बेहूदगी पे



मेढक तुमसे बड़ा ढक
शायद की कोई जंतु मैने देखा है

टेंके रहते हो घुटना हरदम
किसी हीन भावना से ग्रस्त
रंगवाये हो अपनी पीठ सबसे
नालायक चित्रकार से
शायद इसलिए ही नहीं हो
किसी भी देवता की सवारी-
पर माँग बहुत है तुम्हारी साँपों के बीच
लगती है बोली पे बोली और
लुटाते हो प्रसाद बनकर
जब हपकने आती तुम्हे साँपों की टोली


यही सब देखकर
चुना है तुम्हें
एन. सी. ई. आर. टी. वालों ने
चीराने के लिए
दसवीं कक्षा के
बायोलॉजी लैब में-

और मज़ा कितना आता है
छात्रों को
तुम्हें प्लास्टिक बैग में
धर दबोच,
उल्टा लेटा,
चाकू चलाने में

अपने
पाठ्यक्रम के अनुसार



Monday, September 27, 2010

धूमकेतु



इस अंडज ब्रम्हाण्ड के किसी ओर से
निकल पड़े चमकाते अपनी तलवार
लेकर ये ज्वाल, ये आलोक , ये उबाल
कर न सका कोई क्षतिग्रस्त
न कोई पाया तुम्हें लपेट
न ही तुम सुस्ताये बन अतिथि किसी के
चल रहा तुम्हारा यात्रा निर्विघ्न
जाने सृष्टि के किस काल से
देखा तुमने क्रोधित मुनि कपिल का शाप
फिर देखा भागीरथ को स्तुति में लीन
आज देख रहे यहाँ गंगा का बहता चाप

रहो तीव्रता से ऐसे ही गतिमान तुम
कि हो दृष्टिगत जिसे भी
हो जाए उनकी सोती जीवन अवगत
एक खुले विशाल आह्वान से,
और चमक पड़े मनस्व पटेल सदैव के लिए
इस जगमगाती चौंध से

जो देख ले कोई बच्चा
तो माँगे पापा से
तुम्हारे जैसा ही रॉकेट
अगली दिवाली



जीवन पूर्णतः व्यतीत करने का मंत्र




ज़िन्दगी जीता है बस वही भरपूर
जो समय नदी में
वर्तमान के लोटे से
है नहाता निश्चिंत।

भविष्य की बाल्टी
तो होती है कितनी भारी
और भूत के बर्तन का पानी
तो हो चला कितना बासी

बस रखो अपने साथ
ये वर्तमान का लोटा

घबराने की बात नहीं
इस लोटे में है खुर्ची
तुम्हारी अतीत की यादें
रहेंगी साथ जो सदा इस लोटे के साथ-
बस चमकाते रहना
बीच-बीच में
इसे
अपने सुंदर सपनों से

बस और कुछ नहीं
कुछ भी नहीं।

चलो
लगाओ अब
बस एक लोटा एक बार में

हर हर महादेव




रखना मगर ख्याल से



तुम्हारे लिए हैं ये शब्द
चुनकर बस ये ही शब्द
जो बयान करते हैं अपने मायने
जो है अब मेरा भी मतलब तुमसे

पर शब्दों से ज्यादा अहम है
जो आँखों में दिखता है
जो दिल में उबलता है
इन शब्दों का क्या ?
ये तो हैं मात्र
साथ लटकते तार पे कुछ अक्षर
जिनमे से कुछ उड़ भागते हैं
जब आती है हवा जोड़ से-
बदल जाते हैं शब्द फिर
नहीं रहते वही मायने


ये कुछ एहसास हैं तुम्हारे ही लिए
डरते थे ये तुम्हारी परिधि में प्रत्यक्ष होने से
बाँध के लाया हूँ बड़ी मुश्किल से इन्हें एक साथ

संभाल के रखना इन्हें
अगर न हो ठीक से देखभाल इनका
तो ये दिखने लगते हैं अलग-
पर ऐसा भी न करना कि
इन्हें सर पर ही चढ़ा दिया
और अत्यधिक खिला-पिला के कर दिया
इतना चौड़ा
कि देनी पड़ जाए इनकी बलि
हमारे रिश्ते की चौखट में




Sunday, September 26, 2010

इतने बड़े होकर भी कर दी पैंट में पेशाब ?



मार के कराटे
कर देते थे तुम लाल ईंटा को ध्वस्त
और रख के रुमाल, बर्फ़ को चकनाचूर
तोड़वा लेते थे हॉकी स्टिक अपने मजबूत पेट में-
क्यूँ छुपा के चल रहे हो अपने तोंद को आज ?

ससर रहा है पेजामा
तशरीफ़ में चाबुक के निशान
लगता है चल गया हंटर वहाँ जोर से
और जब तुम्हारे चहेते अल्सेशियन ने ही
कुतर दिया चूतड़ तुम्हारा
तो नर्स को दिखाते आ रही शर्म?

तुम्हारी पशुता ने ही आज कर डाली
तुम्हारी पैंट गीली
अब पड़े रहो ऐसे ही बेबस
एक उल्टे तेलचट्टे की तरह



शहर में पढ़ाई-लिखाई



पूरा नाम : बजरंग प्रसाद सिंह
पिता का नाम: बनवारी प्रसाद सिंह
गाँव: सतौल
थाना: हिरोडीह
जिला: लखनपुरा

जंघिया : जॉकी, कम्फर्ट स्ट्रेच, साइज़- मीडियम




कोतरा रोड में डरो रात को



काले कढ़ाई की कोख से जन्मे
तेल स्नानित पूड़ियों के लुटेरे
लाइन से हैं बैठे बेंच में शांतिपूर्वक
जो खुला इनका मुँह तो निकला
गोलियों का गुह

कामी उत्पीड़कों का समूह
भीड़ गया अपने आप में
लंगड़ी मार पटक रहा
एक दूसरे को कादो में

भागी रही बचा-खुचा दबोच
बालायें जंगलों की ओर
हाँफ गयी दौड़ते - दौड़ते
शिकारी आ सकता पीछे से कभी भी

काट रही बुढ़िया कुकुरमुत्ता हँसुआ से
जला हलकी ढिबरी
हो गयी है याद्दाश्त कम-
अब खेलते ईंट की बुकनी
उसकी जुओं से आँख मिचौली

गिर रहे हैं धावक
एक के बाद एक
शब्द रह गए क़ैद सीने की पिंजड़ों में
अब मत पिलाओ ग्लुकोज़-
कराओ इनका ब्लड टेस्ट

हो रहा पागलखाने के बाहर
बनबिलाड़ और झबरे कुत्ते में लड़ाई
ढेला है पड़ा काफी आस पास यहाँ


जब गीदड़ की मौत आती है तो
वो शहर की तरफ भागता है



कविताओं का वितरण समारोह



बाँट रहा हूँ
अपनी चन्द कवितायें
लूझ लो झट से
हो रही इनकी हरी लूट

काम आ जाएँगी ये तुम्हें
बेबसी की रात में,
जब प्यार की बदहजमी
दें किलकारें
और चिल्लाओ तुम 'बाप-बाप'
जब हो न सके कुछ और सहन
और बन के लंगटा बाबा
निकलना पड़े देशाटन पे

चाट लो या खा लो
पर छिलका ज़रूर फ़ेंक देना
वरना ये बेअसर रहेंगे
ध्यान रहे
लेना इसे तब तक
जब तक अगले दिन प्रातः काल
ये मूत बनके न निकले

रख लो निःशुल्क ये सौगात
समझकर एक हमदर्द की तरफ से




रमेश लव प्रिया



स्कूल की मेज में,मिनी बस की सीट पे,
बस स्टॉप की दीवारों पे ,
लोकल ट्रेन के दरवाज़े पे,
पुरुष शौचालय में पहुँच सकती
मूत्र धार से काफ़ी ऊपर,
और पिकनिक स्थल के बड़े-बड़े
चट्टानों में भी
उतनी ही बड़ी अक्षरों से-

हर तरफ है बसा तुम्हारा ही प्रेम
रमेश।

चिंता की कोई ज़रूरत नहीं
प्रिया को भी है तुमसे उतनी ही मोहब्बत-
दो-तीन बार नस काटी होगी तुमनेएक-आध बार चूहे का विष भी
नीलकंठ जैसा साहसी हो
किया गया होगा तुमने धारण

इसलिए आज तुम्हे सजाना अच्छा लगता है दुनिया को-
अपने प्यार के इकरार से,इसलिए ही दिखाना अच्छा लगता है दुनिया को
फल अपनी तपस्या का-
जब पीछा किया करते थे अपने चाचा की
मोटरसाईकिल से,
पहचानते हर उस गली को
जहाँ से वो गुज़रती
और रहते सजग, सर्वव्यापी हमेशा
अपने सनम की आशिकी में

पर ये तो बताओ कहाँ से लाया
उतना चूना
उस बड़ी चट्टान की पुताई के लिए ?



Saturday, September 25, 2010

मामूली सा चाँद इस शहर का




















यहाँ की पृष्ठभूमि है इमारतें-
घरों के पीछे घर
घरों के ऊपर घर

ये शहर शहर नहीं
है अब आँगन
इन्हीं इमारतों के बीच घिरा

कभी कभी चाँद भी दिख जाता होगा
लोगों को फुर्सत में,
जब एक उजाले के स्त्रोत
को ले कर वो हो जाते होंगे विस्मित
और ताकते होंगे ठीक ऊपर।

मुँह और चाँद आमने-सामने
आज कितने दिनों बाद
इस शहर में ।


सँपेरे की तलाश



















दूह गया धामिन
जरसी गायों को
ग्वाले के सन्नाटे में।
मोह लिया गेहूँमन की आँखों को
सँपेरे की बीन ने।
पकड़ा गया विधुर बाप अकास्मात
करता हस्तमैथुन अपनी दासी की लोभ में
उसकी काली वीर्य की फुँकार ने
तुम्हें बदसूरत बना दिया
बन गयी हो तुम एक सस्ती लाश
और ये हैं तुम्हारे खरीदार।

जाकर पकड़ लाओ तुम भी एक दुर्दांत सँपेरा
और मत घुमा करो अकेले ऐसे सन्नाटे में।


आकाश की एक अप्सरा


















तैर रही तुम गंगा में निर्वस्त्र
हवा के धीमे झोंकों के साथ
दूर मछुवारे मार रहे मछली अपनी धुन में
चाँदनी छिंटी हलकी चारों ओर
योगियों के हल्के गेरुवे परिधान
लटके रस्सी पर इस पार
ठंडा बालू टिमटिमाता उस पार

निकल कर आ रही तुम
इस
बैंगनी पानी से
लालटेन की हलकी आँच में
बचाते अपने पावों को
सीढ़ियों में टर्र-टर्राते मेढ़क के बच्चों से
इन झींगुरों के पावन पर्व के
मंत्र उच्चारण के बीच
लपेटते अपने उड़न-खटोले बाल
केंचुए जैसी ऊँगली से
पीछे छोड़ते धार पानी का
अपनी नाज़ुक एड़ियों से

और फिर टंगे कपड़ों के पीछे
कपड़ों में धीरे-धीरे लिपट
तुम आ गयी अब मेरे समीप

स्वर्ग तो ये ही है
तुम्हारा वाला कुछ और होगा



देखने का नज़रिया




















गंगा का पानी-
माइक्रोस्कोप लगा कर देखो
तो लाखों कीटाणु,
लोगों के मैल,
लाशों के कीड़े,
सूजे कुत्तों के झड़े रोम,
और जन्म-जन्म का पाप।


अब दूरबीन लगा कर देखो
स्वच्छ,
सुन्दर,
हवादार,
सदा बहती
संग अपने ले इतने सारे नाव
और जन्म-जन्म का पाप।


सब कुछ निर्भर है दृष्टिकोण पे।
तुम्हें क्या दिख रहा है?

एक घासवाली से चाहत का इज़हार






















शायद वो प्यार नहीं था
कामोत्तेजना था-
उदाहरण के लिए:
मैं उसके साथ बैठ कर
कपटी में चाय पीते-पीते
काफ़्का काका की कथाएँ
नहीं बतिया सकता

न ही अंग्रेजी की कुछ
बेहद रोमांटिक गानों का
मज़ा ले पाता साथ-साथ,
फिल्में तो छोड़ ही दें...

पर ये गलत होगा की मैं
अपने प्यार को
कामोत्तेजना कहकर पुकारूँ

पर इसका उपाय भी क्या हो?

जो लोग एक दूसरे से प्यार करते हैं,
यही सब चीज़ें तो साथ में करते हैं ।

पर मैं भी अगर एक महतो होता-
तब तो फिर ये प्यार ही होता
हाँ, तब ये निश्चित रूप से प्यार ही होता।

अब ठीक है।


टुकड़ों का गुमान


















बाँट आया मैं खुद को
इतनी सारी उम्मीदों में
कि सारे टुकड़े बासी हो चले -
कुछ तेलचट्टों ने चुरा लिया
कुछ दीमक डकार डाले

जो बच गया
उसे शायद भरोसा है
किसी शख्स की तबीयत का-
कि ये अब भी नहीं समेंट रहा
अपने इन टूट चुके टुकड़ों को



Friday, September 24, 2010

कुछ राक्षसी औरतों को सज़ा-ए-मौत






















सँड़सी
से उखाड़ फेंको
इन औरतों कि मूँछें
एक के बाद एक-
चुरा लेती ये अँगूठियाँ शकुंतला की,
मछली के पेट को फाड़ के।
ये ही हैं वो सारी जो
सताती थीं अशोक वाटिका में
सीता को,
कसती थीं तानें
और फिर सोती थीं पड़ोसी के साथ
खटमल लदे खटिया में।

टपकाती लार विभीषण पे,
कुरूप गण ये,
डूबा नाख़ून को अपने मासिक खून में।
हर लेती मासूमियत
नन्हे बालक की
गोदों में खेलाते-खेलाते।

पत्थर की बायीं आँखें इन डायनों की
गाड़ दो मिट्टी में
उन्हीं नन्हे बच्चों के
टूटे दूध के दांतों के साथ।

काले कनस्तर की बनी,
चूल्हे की कालिख लदी, चूहों की चहेती, ये,
एक सलाई की ललकार से थर्रा उठती हैं।
किरासन का वो डब्बा लाओ
नहलाओ इन्हें नंगे
और खड़ा कर दो इस चिलचिलाती धूप में।

जब ये झुलस के राख बन जायें तो
अर्पित कर देना इन्हें
अगली गली के यतीम शिवलिंग पे।


थोड़ी और रोशनी चाहिए इस जहाँ में
















इन आँखों की जलती सलाई
ही रोशनी देती है
इस काना-फूँसी वाली
सहमी दुनिया को।

कुछ और ऐसी आँखें बने
और बँटे हर तरफ
ताकि
लोग हो जाए निश्चिन्त, निश्चल
क्यूँकि तब उन्हें पता होगा
कि ऐसी ही एक भीनी दीया
उनके नाम भी है।



उस अफ़साने की आस


















दे
दो वो अफ़साना
जो मेरी अनकही बातें मांगती है तुमसे,
जिसकी आती है चाह दिल के दो ऊँगली अन्दर से,
जिसका मंज़र है आबाद रहता पलकों के पीछे,
जो कभी इशारा भी कर देती होंगी शायद
अपने उम्मीद का, मन के कसे चाबुक के बावजूद।
बोलो ये इतने दिनों का उधार मुझे कब सौंपोगी?

अगर ऐसा हो गया कि तुम न दे पाओ इसे कभी
एक उपहार की तरह,
तो उपहार समझ कर ही रख लेना
ये आधी कहानी मेरी तरफ से।


जो सालों बाद भी कभी चाहो तो फुर्सत के वक़्त में
खोल कर देख लेना, टटोल लेना इसे
शायद तुम्हारा मन बहल जायेगा।
दे देंगे ढील ये गाल तुम्हारे होंठों को
शायद भर जाए काजल का भार अपने आप
पर अगर ऐसा न हुआ
तो इतने वर्षों बाद भी
मुझे होगा अफ़सोस
कि मेरी एक पुरानी भेंट तुम्हे इतनी पसंद न आ सकी।



यादों का गुल्लक



















यादों का गुल्लक ये मन,
जिसमे पड़े कब से
ये सिक्के
कुछ मेरे, कुछ औरों के,
आज गिर कर फूट पड़ा
अपनी बोझ से


कैसे पुराने लग रहे देखो ये सिक्के-
जब डला था तब इनमें कितना चमक था
पर आज भी इसे हम देखते उसी पुरानी नज़र से
और इसलिए अब भी लगता बिल्कुल पहले सा


क्या होगा इनका मोल ?
...मगर करना है क्या इनके मोल से-
खरीदना नहीं है कुछ और अब
अब तो इस बचत पे ही दिन गुजारने हैं


देखो इसमें ही है बसा
मेरे बचपन का खज़ाना-

एक रोज़ पोछाती साईकिल,
पत्थल मार तोड़ी अमरुद,
फ़्रिज से चुरायी मिठाइयाँ,
टिल्लू भैया से ली कॉमिक्स,
दुर्गा पूजा के मेले में जीती
एक साबुन,

एक बैट -
दो विकेट,

एक कोयले वाली ट्रेन,
न जाने और कितनी अशर्फ़ी...
और उनसे भी अमीर वो कितने सारे पल


एक पुराना कुआँ और उसके लोग
















इस
घर के पिछवाड़े में
है स्थित एक गोल सा कुआँ
वर्षों से -
इस अँधेरे कुएँ
में जब झाँकता हूँ तो
दिखती हैं मुझे
एक काली मछली,
कुछ सूखे पत्ते,
कभी अच्छी दिखने वाली
पर अब सड़ चुकी पंखुड़ियां-
बगल वाले फूल के पौधे की ,
और एक मौन मेढ़क ।
यहाँ पर परछाईयाँ भी दिखती हैं
कुछ और काली।

मगर हाँ ,
बारिश में ये जल की रानी
श्रींगार कर
करती अपनी राजपाट
का छानबीन ललक के साथ
और बाबा मेढ़क छलाँगते
अपनी ज्ञान सुधा बाँटने टर्रा-टर्रा।
वे पत्ते नाव बनकर कराते सैर बूंदों को
और बूढ़ी पंखुड़ियां बन जाती चंचल बालायें ।

पर ऐसा कभी-कभी ही होता है।

अक्सर घटाएँ आस दिखाकर भी
चूक जाती इस काले कुएँ को।

देती हरियाली
पहले से ही हरे-भरे खेत
और हँसती कलियों को।
और य॓ छोटा सा परिवार बना रहता
मूक और उदास।

पर फिर भी मैने महसूस किया है कि
इसी कुएँ का पानी
बाल्टी से निकाल
डाल लूँ अपने ऊपर
तो छा जाती है ख़ुशमिज़ाजी
झुलसती धूप में भी।



तुम्हारी आँखें मुझे प्रिय हैं
















क्या मैने तुम्हें कभी ये बताया
कि तुम्हारी आँखें मुझे प्रिय हैं?
बासमती चावल और गोबर की बनी
ये स्वच्छ आँखें मुझे वैसे ही बहा ले जाती हैं
जैसे की गंगा बूढ़ी औरतों के दीये

ये तुम्हारी आँखें ही हैं
जो पिघलाती है सूरज को समन्दर में
और वो उढ़ेल जाता है
अपना लाल स्याह हर तरफ-
जिसे देखना तुम्हें बहुत भाता है,
देखती ही रहती तुम ये नज़ारा देर तक
अपनी ही करायी इन आँखों से।



भले ही क्यूँ ना






















नभ
-मंडप है सुसज्जित
किरणों के चमकीले डाल से,
यहीं बैठा मन मेरा बजा रहा है बंसी
भले ही है
गोपियों की कमी


बैठा के जो ले चलतीं
मटमैला पानी को अपने सफ़र में-
सुन्दर है ये गंगा की लहरें
अपने आप में
भले ही हो कोई भी मौसम


अपने आप में ही पलती है अनुभूति
निःशब्दता के कमरे में
और विचारों के छत पे
एक अतल कारण से
भले ही हो सके कोई इसका सहभागी।


भागो यहाँ से
















गाने दो ग़ज़ल इस कलाकार को
तुम लोगों कि कोई ज़रूरत नहीं
भाग जाओ यहाँ से-

पहन कर क्यूँ आ जाती हो ये
रसीले, मनमोहक पोशाक
और जमा डालती हो
घेरा अपने झुरमुट का
फालतू में,
जबकि कल से फिर खो जाओगी
उसी दुनिया में
अपनी उन्ही पुरानी आदतों के साथ,
जो हैं ठीक विपरीत उन शेरों के बोल से -
पर जिनपर लुटा रही हो अभी तुम वाह-वाही
और बजा रही हो जोरों से ताली