Wednesday, September 29, 2010

कुछ लोग



विकासक्रम ने बो दिया
हमारा एक वंश वृक्ष
जो चलता आ रहा सदियों से
फैलाता अपनी भुजाएँ
बनता विशालकाय
मानव रजिस्टर के पन्नों से परे
निचोड़ पूरे मनुष्य को
अपने भुजंग चपेट में

मैं भी हूँ इसके एक सिरे का अंश
ला पटकाया यहाँ अपनी इस नोक पे
न जाने किन गहन लम्बे रास्तों से होते
लग गए कितने ज़माने इस धारणा के जन्म में
जिसे आज 'मैं' कह संबोधित करता हूँ

अब पहुँच कर यहाँ, है मेरे कन्धों पर
दायित्व और बिना कोई शक के उम्मीद
अपने इस सिरे को आगे फैलाने का
क्यूंकि ये जो पेड़ है, ये इंसानों की ज़िन्दगी
की गोबर खा फूलता-फलता है, किस्म जो भी हो-
ज़िन्दगी आगे बढ़ रही, तो यह भी आगे बढ़ रहा

मेरे इस नव अंकुरित छोर को आगे बढ़ाने की
अपेक्षा कर रहे इस दानवी वृक्ष के कंकाल,
कंकाल ही- क्यूंकि अब वो पुरातन पूर्वज तो
अपनी हाड़-मांस त्याग सोये पड़े हैं कहीं
बची उनकी आस्तित्व की बस कुछ कहानियाँ
जो चली उनसे दो-तीन सतह नीचे
फिर खो गयी वो भी कहीं
न जान पाने की वजह से
न दोहराए जाने की वजह से

कितना खाली होता है वो सूनापन
जब इस झाड़ीदार समकालीनों के बीच
एक आदमी पड़ जाता है अकेला
न बचा पिछला कोई
न ख्वाहिश अगलों की
केवल वो- बिलकुल अकेला

ढूँढता गर्मी जहाँ मिल जाए
जिससे मिल जाए
प्रेयसी की बाहों में
तवायफ की कराहों में
बचाता है खुद को
अपनी व्यवसाय की चादर ओढ़
इस दाँत कटकटाने वाली ठिठुरन से
लेकर अपनी लतों की गर्मी
और कर दोस्तों के साथ कुछ दूर चहल कदमी
पर अब ये मित्र पहले जैसे कहाँ?
ये भी हैं अब व्यस्त
इस वृक्ष की पालन पोषण में
अपनी उपज की जिम्मेदारियों से
ताकि चले उनकी भी कहानी
कुछ और आगे

और ऐसे ही चलता रहता है कश्म-कश
उस अकेले का खालीपन से
कभी कुछ पुरानी आदतें काम आ जाएँ
तो कभी कोई नया शौक
मतलब ज्यादा नहीं रहता
कि कौन है, कौन नहीं
पर होता है संदेह
कौन-कौन हो सकते थे ?
फिर एक दिन हो जाती
है उसकी कहानी ख़त्म
और साथ ही इसके
कई सदियों से चली आ रही वो एक बहाव भी-
उसकी तस्वीर अब
किसी फ्रेम पे नहीं सजेगी
उसे कैसा संगीत पसंद था
ये चर्चा कभी न होगी

पर बात यहाँ ख़त्म नहीं होती-

एक इंसान के वजूद का माप
उसके परिजनों में बसी
उसकी जमी यादों के गहराई
से नहीं करते
बल्कि उसकी पुष्टि होती है
गैरों के ज़हन में
बार बार दोहराई
उसकी बसर ज़िन्दगी की कल्पना से



1 comment: