Sunday, September 26, 2010

कोतरा रोड में डरो रात को



काले कढ़ाई की कोख से जन्मे
तेल स्नानित पूड़ियों के लुटेरे
लाइन से हैं बैठे बेंच में शांतिपूर्वक
जो खुला इनका मुँह तो निकला
गोलियों का गुह

कामी उत्पीड़कों का समूह
भीड़ गया अपने आप में
लंगड़ी मार पटक रहा
एक दूसरे को कादो में

भागी रही बचा-खुचा दबोच
बालायें जंगलों की ओर
हाँफ गयी दौड़ते - दौड़ते
शिकारी आ सकता पीछे से कभी भी

काट रही बुढ़िया कुकुरमुत्ता हँसुआ से
जला हलकी ढिबरी
हो गयी है याद्दाश्त कम-
अब खेलते ईंट की बुकनी
उसकी जुओं से आँख मिचौली

गिर रहे हैं धावक
एक के बाद एक
शब्द रह गए क़ैद सीने की पिंजड़ों में
अब मत पिलाओ ग्लुकोज़-
कराओ इनका ब्लड टेस्ट

हो रहा पागलखाने के बाहर
बनबिलाड़ और झबरे कुत्ते में लड़ाई
ढेला है पड़ा काफी आस पास यहाँ


जब गीदड़ की मौत आती है तो
वो शहर की तरफ भागता है



2 comments:

  1. फॉलोवर बना कर ही छोड़ोगे! लो बन गया।

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  2. beneath the glossy wall-papers of cultural advancements and under the aroma of sophisticated civilization there exists that unrefined, artless, uncultured society within our own minds yet invisible to us...that you have been talking about..a sheer grotesque that you've been illustrating in some of your poems is a part within us....more we stink the more we use deo..and vice-versa..
    in some way we are all गीदड़ with varied definitions..rushing towards our own entrapments..
    जब गीदड़ की मौत आती है तो
    वो शहर की तरफ भागता है

    Salvation!!..that is!

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