अरसे से बस जोतता रहा हल, यहीं देहात में
सोचता हूँ अब शहर जाऊँ, चार पैसे कमा आऊँ
करता रहा भला, जहाँ जितना भी हो सका
सोचता हूँ अब उनका नाम-पता खोज आऊँ
बहुत सहूलियत से थामता रहा इन रिश्तों के डोर
सोचता हूँ अब मँझा बना इनसे पतंग लड़ा आऊँ
जिन्हे तुम सुंदर कहते थे, वे अपनी कुरूपता से भयभीत होकर भाग खड़ी हुईँ
@बहुत सहूलियत से थामता रहा इन रिश्तों के डोर
ReplyDeleteसोचता हूँ आज मँझा बना इनसे पतंग लड़ा आऊँ
स्तब्ध हूँ।
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ReplyDeletebahut hi khubsurat aapki rachna hai...
ReplyDeleteबा भैया !
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आज सागर ने आपके ब्लॉग को बज़ पर शेयर किया था...वहीँ से आप तक पहुंची...आप लिखते बहुत अच्छा हो.
ReplyDeleteऐसा सोलिड लिखा बड़े दिन बाद पढ़ा है...पर ये अचानक इतना लंबा विराम क्यूँ?
अगर आपके लिखने से ब्रेक लिया है तो प्लीज लिखना फिर शुरू करें. आपकी...चला दो गोली खास तौर से बहुत पसंद आई.
sundar rachna
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