Tuesday, March 19, 2019

सोचता हूँ



अरसे से बस जोतता रहा हल, यहीं देहात में
सोचता हूँ अब शहर जाऊँ, चार पैसे कमा आऊँ

करता रहा भला, जहाँ जितना भी हो सका
सोचता हूँ अब उनका नाम-पता खोज आऊँ

बहुत सहूलियत से थामता रहा इन रिश्तों के डोर
सोचता हूँ अब मँझा बना इनसे पतंग लड़ा आऊँ


7 comments:

  1. @बहुत सहूलियत से थामता रहा इन रिश्तों के डोर
    सोचता हूँ आज मँझा बना इनसे पतंग लड़ा आऊँ

    स्तब्ध हूँ।

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  2. This comment has been removed by the author.

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  3. bahut hi khubsurat aapki rachna hai...

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  5. आज सागर ने आपके ब्लॉग को बज़ पर शेयर किया था...वहीँ से आप तक पहुंची...आप लिखते बहुत अच्छा हो.
    ऐसा सोलिड लिखा बड़े दिन बाद पढ़ा है...पर ये अचानक इतना लंबा विराम क्यूँ?

    अगर आपके लिखने से ब्रेक लिया है तो प्लीज लिखना फिर शुरू करें. आपकी...चला दो गोली खास तौर से बहुत पसंद आई.

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