Saturday, September 25, 2010
आकाश की एक अप्सरा
तैर रही तुम गंगा में निर्वस्त्र
हवा के धीमे झोंकों के साथ
दूर मछुवारे मार रहे मछली अपनी धुन में
चाँदनी छिंटी हलकी चारों ओर
योगियों के हल्के गेरुवे परिधान
लटके रस्सी पर इस पार
ठंडा बालू टिमटिमाता उस पार
निकल कर आ रही तुम
इस बैंगनी पानी से
लालटेन की हलकी आँच में
बचाते अपने पावों को
सीढ़ियों में टर्र-टर्राते मेढ़क के बच्चों से
इन झींगुरों के पावन पर्व के
मंत्र उच्चारण के बीच
लपेटते अपने उड़न-खटोले बाल
केंचुए जैसी ऊँगली से
पीछे छोड़ते धार पानी का
अपनी नाज़ुक एड़ियों से
और फिर टंगे कपड़ों के पीछे
कपड़ों में धीरे-धीरे लिपट
तुम आ गयी अब मेरे समीप
स्वर्ग तो ये ही है
तुम्हारा वाला कुछ और होगा
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