Monday, October 26, 2009
कुछ चीज़ों का मिलना जायज़ है
दे दो स्वर्णिम वरदान
ओ उजालों के साहूकार-
कुछ भी रख दें हम गिरवी,
की फिसल जाएँ
अन्दर हम अन्तरवस्त्र के
जब चाहें , जिधर भी
हो कर नतमस्तक उन पावन ऊँचाइयों के
जिसपर बसती हमारी लालसा की देवी
लिपटी चादर में अनेक रंगों के
और देती बुलावा छुपे हुए
जिसके लिए करना पड़ता लंबा सफर-
कठिनाइयों और हिम्मत से भरा।
जिसकी प्यास का पिपासु तो बना दिया
बचपन से हमें,
कस तो दी तुमने एक बार चाभी हमारी
छोड़ने से पहले,
पर चलते भटकते इधर से उधर
रुक पड़े हम शिथिल
राह तकते-
की भेज दो शायद तुम किसी को
फिर से
हमारी चाभी कस देने।
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Very Nice And Interesting Post, thank you for sharing
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