Monday, October 26, 2009

अपने हाथों के सिराहने पे



अपने हाथों के सिराहने पे
सर छुपा कर, आंखों को मूँद
जब झाँकता हूँ अंधेरे में-
कुछ दिखता है अजीब सा वहाँ
कुछ सूझता है अजीब सा वहाँ

जाने कहाँ से जाती हैं ये सारी बातें
जाने किस बाज़ार में पकड़ लेती हैं ये
मुझे चलते-चलते

शायद मेरे चप्पल में सट जाती हैं
सब्जी की गलियों में
या फिर पीठ पे गिर जाती हैं
किसी पेड़ के ऊपर से

होने को तो ये भी हो सकता है की ये
अटक जाती हैं मेरे बालों में
जब मैं खिड़की पे सर रखता हूँ बस में
या फिर अचानक मेरे पॉकेट में बैठती हैं
जब दरवाजे पे खड़ा रहता हूँ में ट्रेनों पे

और फिर ये सहेलियाँ दिखती हैं
अपनी रंग-बिरंगी साड़ियों में-
कभी मन बहलाने , रिझाने
तो कभी उलझाने, अकेला बनाने

और अक्सर ऐसा होता है कि
इनके जमघट से टूट पड़ता है वो
कच्चा पूल- जो जोड़ती है
मेरी सोती और जागती दुनिया को,
और लगाती हैं ये सारी फिर
गोते, डूबकी, रेस
अपने हर एक रूप में
चाहे हो वो हल्के, बुझे या ठेस

हाँ शायद ऐसा ही होता होगा
मेरी सोयी आंखों में
जब मैं अपने हाथों के सिराहने पे
सर छुपा, झाँकता हूँ अंधेरे में।

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